Tuesday, September 7, 2010

Question the religion but think before you comment

This post is in English and this is straight lift from my rediff blog, this should be readable for most of you. Unfortunately I do not have time to translate it in hindi.

Recently I was reading an article at rediff about some people in Pak becoming atheist. Unfortunately like many other time with discussion over there, things almost always takes a hindu vs muslim point of view. I can not comment on things which they say about Islam as my own understanding is limited but I would like to write about some of the things questioned over there about hinduism.
Krishna and number of his wives: Each soul has yearning to be with supreme being, Krishna is believed to be highest level incarnation of supreme lord. Therefore people found him too attractive and his another name was Mohana, which literally means Mr. Charming. Several of the women in his era couldn’t take their gaze off the lord, you can imagine if you have god in front of you, you wouldn’t like to be with anybody else. Still he married to 16000 of women abducted by a criminal named Narkasura, if he wouldn’t have married them, society would have rejected them.Where else you find this kind of benevolence for the fallen ones except by lord himself? He didn’t chose his brides, fathers of prospective brides and brides themselves chose him. God’s door is opened to everybody
Shiva chopping of head of his son: Basic thing one needs to understand is worshipers of shiva are basically worshipers of nature. The story has a moral, and comman man understands that moral. But this is not a fairy tale this is story of creation and destruction. Every entity is believed to be alive in front of god and it includes, mountains rivers and rocks. Shiva chopped of head of a boy, who was preventing him from meeting his beloved wife(unknown to him boy was created by his wife himself hence should be considered his son) before you take any other menaing of this story you need to understand that Shiva’s wife was a daughter of mount Himalaya, and therefore she is not a human like me and you, made up of flesh. To understand the basic moral that one shouldn’t act in haste like Shiva, is easy but to understand divine creation and destruction, one need to develop higher level intellect

Tuesday, February 2, 2010

गोबर नंबर ७

पिछले दिनों आई फ़िल्म 3 IDIots में कई गुण है परंतु कुछ बातें ऐसी है जो मन कसैला करती है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे कि तरह आमिर ने अमिताभ से कहा था कि उनकी फ़िल्म ब्लैक बच्चों के प्रति सम्वेदनहीन है और अवचेतन मन को संदेश देती है कि बच्चों को पीटने से वो सुधार जाते है/चीजें सिख जाते है. परन्तु क्या 3 Idiots भी उसी तरह से यह शिक्षा नही देती कि शिक्षक दब्बू होते है? आमिर अंत में वैज्ञानिक निकलते है परंतु अगर शिक्षक ही रहते तो क्या असफल माने जाते? हमारे स्कूल के स्टूडेंट्स शिक्षकों को इज़्ज़त नही देते है, बल्कि उनके लिए भी चतुर कि ही तरह शिक्षक एक ऐसा निरिह प्राणी है जिसे और कही और काम मिल नही पाया , महज 3000-5000 रुपय महीना कि तनख्वाह पाने वाले वोह शिक्षक तो पुजनिय है, जो समाजा कि सेवा कर रहा है. वैसे भी हमारे यहाँ शिक्षक बनने के लिए कोई विशेष योग्यता नही चाहिए कोई भी रास्ते चलता शिक्शक बन जाता है, केवल कुछ ही लोग ऐसे होते है जो अपनी धुन कि वजह से यह पेशा चुनते है.
आमिर को आजकल समाज को शिक्षा देने वाली फिल्में बनाने का भूत चढ़ा हुआ है सुनते है कि अगली फिल्म वो विकलांगों पर बनाने जा रहे है, क्या वोह शिक्शको के जीवन पर फ़िल्म बनायेंगे? आख़िर समाज उनके बीना चल नही सकता, तो उन्हें उनका सम्मान देने से जिझक्ता क्यों है?

(जब मेने यह ब्लॉग शुरू किया था तो पता नहीं था की कोई मुझे सुनने भी आएगा, विशेषतया तब जब नाम ही Bullshit और गोबर हो। पर जब बंद करने की बारी आई तो, डर सा लग रहा था कम से कम ७ लोग पढेंगे और जब गुस्सा ही नहीं रहा तो लेखनी में शायद वोह बात न रहे जिसे पढ़ने के लिये ये लोग यहाँ आते थे। आज ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद लौटा, शायद अब कोई बचा नहीं होंगा मेरे ब्लॉग में रूचि रखने वाला, तो अब कोई डर नहीं । (अंतिम पोस्ट))

Thursday, April 23, 2009

गोबर नम्बर 6

उपरवाला जो करता है अच्छे के लिए करता हैं, ये बातें करने वाले तो बहुत मिल जातें है परन्तु इसमे छुपी गूढ़ बात समझ सके ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं, जब बचपन में हमारे माता पिता किन्ही कारणों से हमें किसी कार्य के लिए रोक देते हैं तो व्यस्क होने पर हम कहते हैं, यदि आज उन्होंने हमको न रोका होता तो हम कितने सुखी होंते! वास्तव में उन्ही बच्चो को वो सब कुछ करने दिया गया होता तो भी बड़े होने पर उन्होंने माँ बाप को ही दोष दिया होता की अगर उन्होंने मुझ पर थोड़ा नियंत्रण सा किया होता तो मेरा जीवन सुधर गया होता!

गौर से देखा जाएँ तो बचपना सिर्फ़ बच्चो का काम नही है, बचपन में हर बात के लिए हम माता पिता को दोषी ठहराते हैं और व्यस्क होने पर भाग्यविधाता या भाग्य को। विधाता ने आपको किस कार्य के लिए बनाया है ये आप तभी समुझ पायेंगे जब सारे काम एक समान भाव से किए जाएँ, फिर अगर अपने कक्ष की सफाई की बात आ जाएँ तो तब तक चैन न मिले, जब तक की धुल का एक कतरा भी रह गया हों। जब आप सारे कार्य इस बैचेनी और लगन से करेंगे, तभी समझ पायेंगे की दुनिया में आपको किस लिए बनाया गया है। जब तक आपके मन में ये भाव बना रहेगा की एक कार्य दुसरे कार्य से अधिक ऊँचा है तब तक आप स्वयम को और इश्वर को दोष देना बंद नही करेंगे। जैसे इश्वर ने हम सभी को एक समान बनाया है, दुनिया में सारे कार्य भी तो उसी के बनाये हुए है फिर एक मजदुर का काम एक वैज्ञानिक के काम से कमतर क्यों?

वास्तव में देखा जाए तो भारत में बचपन से ही हमारे दिमाग में घुस जाता है की पढ़ाई सिर्फ़ इसलिए की जाए ताकि आप नौकरी करे और दूसरो को आदेश दे। तभी तो हमारे देख में अनाज का उतपादन प्रति हेक्टेयर विकसित देशो के मुकाबले आधा भी नही है (लगभग एक तिहाई है) क्योंकि किसान तो हमेशा बेहद कम पढ़ा लिखा होता है। जो पढ़ लेता है उसे यह सब हेय लगने लगता है। अंत में जाकर हम काम तो करते है लेकिन बेहद बेमन से, किसान अनाज उतपादन करता है मज़बूरी में, अपनी उमंग और उत्साह से नही। जो दूसरो पर रुआब कसने के लिए खेती छोड़ता है उसे लगता है, की उससे उपर कोई है जो उससे अधिक सुखी है, फलस्वरुप एक बार फिर वो उत्साह नही आता जिसकी दरकार है।
इससे एक कदम आंगे जाऊँ तो कह सकता हूँ की आज सभी के सभी छात्र इंजिनियर या डॉक्टर बनना चाहते है, एक बात बताइए, यदि सब इंजिनियर बन गए तो उन कार्यो को कौन करेगा जो सामान्य आदमी के लिए डॉक्टर और इंजिनियर की अपेक्षा अधिक आवश्यक है? यदि कोई आध्यापक न बने तो क्या हमारा समाज चल सकेगा? विचार किया जाय तो हिन्दुस्तान का इतिहास या तो विदेशी लिखते आयें है या विदेशो में पढ़े और विदेश से प्रभावित भारतीय, यदि भारतीय अपना इतिहास ख़ुद नही लिंखेगे तो आने वाली पीढी अपने आप पर गर्व कैसे करेंगी? परिणाम यही है की हमें भारतीय की बजाय फिरंग ही श्रेष्ठ नजर आते है। इसी का छोटा सा रूप है इस वर्ष की IPL प्रतियोगिता में भारतीय प्रशिक्षु कम और फिरंगी ज्यादा नजर आतें है। कैसे जागेगा भारतीय होने का अभिमान?
में एक वैज्ञानिक हूँ, भारत के बाहर अपना अनुसंधान पुरा कर भारत लौटने को बैचैन हूँ, परन्तु इस बात का हमेशा दुःख होता है की आज नए भारतीय छात्र आधारभूत विज्ञान छोड़ कर कटिंग एज के नाम पर उन क्षेत्रों का चुनाव कर रहे है, जहा विदेशी फंड अधिक मिल सके! अरे भाई पैसे का मोह इतना है तो फिर विज्ञान क्यों? आप इंजिनीयार और मैनेजर के रूप में जितना कमा सकते है उंतना तो विज्ञान में संभव हि नही है, और इन क्षेत्रों के लिए उतनी मेहनत भी नही है जितनी विज्ञान के लिए जरूरी है। जरा सोचिये अगर हम सभी वैज्ञानिक उभरते हुए क्षेत्रों में जाए और आधारभूत को तिलांजलि देदे तो क्या कभी हम हिन्दुस्तानी अपनी एक सफल टीम बना सकते है? एक अच्छी टीम के लिए तो आधारभूत कि आवश्यकता उभरते हुए क्षेत्र से ज्यादा हि होंगी।
अंत में इसी को संक्षिप्त रूप में कहू तो स्वर्गोपम भारत की धरती सब को सुखी तभी बना सकती है जब हम सारे काम लगन से करे और वर्तमान में जीते हुए वर्त्तमान का आनंद ले।

Friday, April 10, 2009

गोबर नम्बर पाँच

बार बार प्रश्न उठाया जाता है की लड़कियां स्कूलों में तो लड़को से आगे रहती है फिर प्रतियोगी परीक्षाओ में उन्हें क्या हो जाता है, कुछ लोग कहते है की इसके पीछे कोचिंग का हाथ है। लोग अपनी बेटियों को कोचिंग के लिए नही भेजते है इसलिये उनका चयन नही हो पाता , अजी क्या कहने आपके! क्या आपने कभी किसी वर्ष के नोबेल पुरस्कार की सूचि खोलकर देखि/पढ़ी है? यदि हाँ तो इसमे कितने पुरूष और कितनी महिलाए थी? विज्ञान जैसे क्षेत्र में तो कोई भेदभाव नही है, फिर ऐसा क्यो?
जहां तक लड़कियों के चयन का प्रश्न है ये अंतर सिर्फ़ और सिर्फ़ मानसिकता का है, आप कहते है की इंजिनियरिंग मे छात्रा प्रतिशत कम इसलिए होता है क्योंकि लड़किया बायोलॉगी मे सिर अधिक खपाती है, तो मेडिकल के क्षेत्र मे छात्रा प्रतिशत को क्या होता है? वहाँ भी बात छोड़ दीजिए, विदेशो मे छात्रा को छात्र के बराबर माना जाता है, फिर पी एच डी लेवेल तक आते आते छात्रा प्रतिशत क्यों बुरी तरह गिर जाता है? वस्तुतः प्राकृति ने हमारा जो स्वाभाव बनाया है उसके अनुसार एक महिला के लिए अपने स्तर से संतुष्ट होना अधिक आसान है बनिस्बत एक पुरुष के, फलतः वे एक स्तर के बाद संघर्ष करना बंद कर देती है, और उच्च शिक्षा के लिए अपने द्वार स्वयं बंद करती है।
इसे मैं प्राकृतिक संतुलन कहूँगा, प्रकृति स्वयं ये चाहती है की की परिवार बने रहे, यदि पुरूष और महिलाओ के बिच असंतुष्टि को लेकर होड़ छिड़ जाएँ तो इसमे हार सिर्फ़ प्रकृति की ही है, महिलाए आम तौर पर पुरुषों के मुकाबले अधिक लंबे समय जीवीत रहती है इसका कारण भी यही है, अपने मानसिक असंतोष के कारण वह महिलाओं से आगे तो निकल जाता है परन्तु यही असंतोष उसे नाना प्रकार की बीमारियों में भी धकेल देते है, युवा अवस्था में तो उसका शरीर निरंतर संघर्ष में साथ दे देता है परंतु वृध्धावस्था में उसकी असमर्थता कुंठा को जन्म देती है।
निरंतर संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है परन्तु उसी विकास को सहेजने के लिए संतुष्टि की आवश्यकता है।

Friday, April 3, 2009

गोबर नम्बर चार

आए दिन मैं सुनता हूँ की अंग्रेजी के हिन्दी में मिलजाने से हिन्दी धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही है महानुभाव, हिन्दी को बचा कर आप क्या हासिल कर लेंगे? वैसे ये भी याद रहे की परिवर्तन जीवित होने की निशानी है. संस्कृत एक पूर्ण विकसित भाषा है, परन्तु रामायण की संस्कृत और महाभारत की संस्कृत मे अन्तर है, क्यों? ये सिर्फ़ इसलिए क्योंकि संस्कृत उस समय जीवित थी आज मृतप्राय अवस्था मैं उसे पूर्ण भाषा होने का दर्जा प्राप्त है संस्कृत इतनी परिषकृत की जिसमे कंप्यूटर सबसे बेहतर तरीके से काम कर सकता है! जिसे आप हिन्दी कहते है आपकी ५-६ पिडीयो पहले वही भाषा शैशव अवस्था मे थी, अवधी भोजपुरी, बुन्देली, पञ्जाबी, मैथिलि , ब्रिज और भी कई भाषाओ समेत सबकी मूल संस्कृत के मेलजोल से बनी हिन्दी. अब हिन्दी में अगर अंग्रेजी भाषा मिल रही है तो कई लोगो को नागवार है याद रहे जिसका विकास नही होता वो जीवित नही होता. हिन्दी जीवित हैं उसे संस्कृत की तरह मृत न बनाइये। भाषा का उपयोग न करना उसकी हत्या है, उसी प्रकार भाषा को भाषा पंडितो के लिए छोड़ देना भी उसकी हत्या है। हिन्दी में कई शब्द कई भाषाओ से लिए गए है अब उसमे कुछ शब्द अंग्रेजी के आ रहे है तो उन्हें स्वीकार करना चाहियें। अंग्रेजी तो ख़ुद ही भयभीत दिखाई दे रही है मोबाइल पर लिखी जाने वाली भाषा से।

खालिस अंग्रेजी भाषा की स्पेलिंग प्रतियोगिताओ में भारतीय अमेरिकी और भी कई अश्वेत बालक श्वेत बालको को मात दे रहे है। क्या आपने सोचा है क्यों? क्योंकि शुद्ध भाषा -२, व्याकरण का आलाप श्वेतो को अब अंग्रेजी से उसी तरह दूर भगा रहा है जिस तरह कभी संस्कृत को जनसामान्य से दूर कर सिर्फ़ आभिजात्य वर्ग तक ही सिमित कर दिया गया था। भाषा हमारी संस्कृति का जिवंत आइना है, वृक्ष जो घना और घना होता चला जाता है एक दिन परिवर्तन से इनकार कर देता है फिर वो बुढा हो कर गिर जाता है, उसकी जगह लेता है एक छोटा सा साधारण सा पौधा, और फिर वह भी विकसित हो कर घना होना शुरू कर देता है। अनंत काल से यही प्रकिया जारी है, और रहेगी, १६वि सदी में शेक्सपिअर के जमाने की अंग्रेजी और आज की अंग्रेजी में जमीं आंसमां का फर्क है, तो ये सिर्फ़ भाषा के जीवित और विकसित होने की निशानी है।
सच कडुआ होता है और हममे से कई लोगो को ये स्वाद पसंद नही है,मेरी पिछली रचना पर कई लोगो ने सहमती दिखाई थी, परन्तु इस बार शायद ही कोई मुझसे सहमत हो। आपके प्रतिसाद के लिए सादर धन्यवाद, यदि हास्य विनोद पढ़ना चाहे तो क्षमा चाहुगा परन्तु ये ब्लॉग आपके लिए नही है, यदि चाहे तो आप मेरा हास्य लेखन तत्व बोध (http://tatva-bodh.blogspot.com/)पर पढ़ सकते है।

Tuesday, March 31, 2009

गोबर नम्बर 3

पर्यावरणविज्ञानिक पर्यावरण के कितने मित्र है, यह "अर्थ आवर" यानि "पृथ्वी घंटा" से साबित हो जाती है। दुनियो को अंधेरे में रखने से जितना भला हुआ पर्यावरण का उससे भी ज्यादा भला सिर्फ़ एक विमान की उड़ान रद्द होने से हो जाता है, जो बिजली एक बार बन गई क्या उसे फिर से कोयले में बदला जा सकता है? यदि नही तो अपने घर की बत्ती एक घंटे बंद कर आपने वातावरण का कोई हित नही किया! यदि आप हित करना ही चाहती/चाहते है तो प्रतिदिन बिजली की बचत कीजिये तभी विद्युत उत्पादन सयंत्र कम कोयला या पेट्रोल उपयोग करेंगे, वरना जो एक बार बिजली पैदा हो गई उसे संग्रह करना लगभग असंभव हैं।
शायद पर्यावरण वैज्ञानिक ये सोचते है की बिजली न उपयोग कर अगर मोमबत्तियों का प्रयोग किया जाय तो हम पृथ्वी को बचा लेंगे! अरे भैय्या मोमबत्ती से कोई धुआ नही निकलता क्या? वास्तव में अगर पर्यावरण पर कोई खतरा न हो तो ये सब अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। पृथ्वी घंटा मनाने के लिए अगर आप घर की बत्तियां बंद कर कार से बाहर केंडल लाइट डिनर पर जायेंगे तो हो चुका भला।
अभी मैंने पढा की गाय भैसों को मछली का तेल दिया जाए तो उनका पादना कम हो जायेगा इससे वातावरण का भला हो जायेगा। अरे वाहरे पर्यावरणविज्ञानं, शाकाहारियों को मांसाहारी बना देने से वातावरण सुधर जायेगा ये कह कर तो आपने अपनेआप ही सिध्ध कर दिया की आपकी बात सुनने वाले महामूर्ख है।
वास्तव में पश्चिमी विद्वान अनन्त काल से इसी भ्रम में है की दुनिया का सारा पोषण मांस में ही पाया जाता है। वे ये तो कहते है की इंसान की उत्पत्ति शाकाहारी वानरों से हुई है, परन्तु इसके साथ ये भी थोपने का प्रयत्न करते है की मनुष्य की बुध्धि का विकास तभी सम्भव हो सका जब उसने मांस भक्षण प्रारम्भ किया, क्योंकि इससे उसे ऐसे पोषक तत्त्व मिले जो शाक भाजियों से नही मिल सकते थे। में इन लोगो से ये पूछना चाहूँगा की आज भी शाक भाजी खाने वाले मांसाहारियों से अधिक सवस्थ रहते है, तो उस युग में जब उसने मांस खाना प्रारंभ किया अपने स्वास्थ्य की रक्षा कैसे कर पाया? और यदि वह अपने स्वाथ्य की रक्षा नही कर पाया तो विकासवाद के अनुसार वोह अपनी संतति को कैसे बचा पाया? मनुष्य का पाचन तंत्र शाकहरीयो के पाचन तंत्र से ही मेल खाता है, अतः मांसभक्षी मानव बिना चिकित्सा के अपनी स्वास्थ्य रक्षा नही कर सकता।
आप शाकाहारी जीवो को मांसभक्षी बना कर सात जन्मो में भी वातावरण का भला नही कर पायेंगे, अगर ऐसा किया गया तो इसके दूरगामी परिणामो को हमारी कई पुश्ते भोगेंगी । वातावरण का हित , उसके हिसाब से चल कर ही किया जा सकता है उसे अपने हिसाब से मोड़ का नही। पर्यावरण का असली शत्रु उपभोक्तावाद है, अपने हित के आगे, अपनी जिद के आगे , औरो को कुचल देने की मनोवृति है।

Saturday, March 28, 2009

गोबर नम्बर दो

है भारत भाग्य विधाता, उठा ले आडवानी और मनमोहन दोनों को ताकि हिंदुस्तान को एक नया और बेहतर नेत्रत्व मिल सके।
मनमोहन सिंह को सोनिया का गुलाम एवं भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहा गया है, किंतु यह तो अब तक की ही बात हुई। अगर आडवानी प्रधानमंत्री बने तो वे मनमोहन सिंह से भी अधिक कमजोर साबित होंगे! जरा सोचिये भैरो सिंह को राजस्थान के बाहर कितने लोग जानते है, माना वे उपराष्ट्पति रहे है, किंतु क्या उन्होंने उस पद पर रहते हुए एक भी ऐसा काम किया हैं, जिसके लिए उन्हें याद किया जा सके? क्या राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान शुन्य नही है? भैरो सिंह अगर राजस्थान को छोड़ कर किसी अन्य प्रदेश से चुनाव लडे तो उनकी जमानत ही जप्त हो जायेगी। ऐसी स्थिति में भैरो जैसा ऐरा गैरा अगर आडवानी को आँखे दिखा सकता हैं, तो सोचिये की वे राजग का कुनबा कैसे सम्हालेंगे ? यहाँ मनमोहन सिंह को सिर्फ़ सोनिया कंट्रोल करती है, वहां उन्हें कंट्रोल करने के लिए सैकडो छुटभैये तैयार होंगे! नविन पटनायक ने ये साबित कर ही दिया है की किस तरह से नाव डुबोई जाती है, अरुण जेटली बीजेपी की अगली पीडी के नेता है, परन्तु ग्रृहयुध्ध तब कर रहे हैं जब समरभूमि चीख पुकार कर रही है शिवसेना को सिर्फ़ महाराष्ट से मतलब है। कुलमिलाकर कुनबा सम्हालने के लिए जैसी कुशलता कुलपति से अपेक्षित की जाती है , वैसी आडवानी मे दूर दूर तक दिखाई नही देती! कांग्रेस देश का दुर्भाग्य है परन्तु उसे सहना हमारी मज़बूरी है, तीसरा मोर्चा मुझे वैकल्पिक पाकिस्तान दिखाई देता है, क्योंकि ये पाकिस्तान की ही तरह ऋणात्मक विचारधारा से पीड़ित है। मायावती का अवसरवाद, कम्युनिस्टो का कमीनापन किसी भी स्थिति में अयोग्य ही ठहराया जायेगा।