उपरवाला जो करता है अच्छे के लिए करता हैं, ये बातें करने वाले तो बहुत मिल जातें है परन्तु इसमे छुपी गूढ़ बात समझ सके ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं, जब बचपन में हमारे माता पिता किन्ही कारणों से हमें किसी कार्य के लिए रोक देते हैं तो व्यस्क होने पर हम कहते हैं, यदि आज उन्होंने हमको न रोका होता तो हम कितने सुखी होंते! वास्तव में उन्ही बच्चो को वो सब कुछ करने दिया गया होता तो भी बड़े होने पर उन्होंने माँ बाप को ही दोष दिया होता की अगर उन्होंने मुझ पर थोड़ा नियंत्रण सा किया होता तो मेरा जीवन सुधर गया होता!
गौर से देखा जाएँ तो बचपना सिर्फ़ बच्चो का काम नही है, बचपन में हर बात के लिए हम माता पिता को दोषी ठहराते हैं और व्यस्क होने पर भाग्यविधाता या भाग्य को। विधाता ने आपको किस कार्य के लिए बनाया है ये आप तभी समुझ पायेंगे जब सारे काम एक समान भाव से किए जाएँ, फिर अगर अपने कक्ष की सफाई की बात आ जाएँ तो तब तक चैन न मिले, जब तक की धुल का एक कतरा भी रह गया हों। जब आप सारे कार्य इस बैचेनी और लगन से करेंगे, तभी समझ पायेंगे की दुनिया में आपको किस लिए बनाया गया है। जब तक आपके मन में ये भाव बना रहेगा की एक कार्य दुसरे कार्य से अधिक ऊँचा है तब तक आप स्वयम को और इश्वर को दोष देना बंद नही करेंगे। जैसे इश्वर ने हम सभी को एक समान बनाया है, दुनिया में सारे कार्य भी तो उसी के बनाये हुए है फिर एक मजदुर का काम एक वैज्ञानिक के काम से कमतर क्यों?
वास्तव में देखा जाए तो भारत में बचपन से ही हमारे दिमाग में घुस जाता है की पढ़ाई सिर्फ़ इसलिए की जाए ताकि आप नौकरी करे और दूसरो को आदेश दे। तभी तो हमारे देख में अनाज का उतपादन प्रति हेक्टेयर विकसित देशो के मुकाबले आधा भी नही है (लगभग एक तिहाई है) क्योंकि किसान तो हमेशा बेहद कम पढ़ा लिखा होता है। जो पढ़ लेता है उसे यह सब हेय लगने लगता है। अंत में जाकर हम काम तो करते है लेकिन बेहद बेमन से, किसान अनाज उतपादन करता है मज़बूरी में, अपनी उमंग और उत्साह से नही। जो दूसरो पर रुआब कसने के लिए खेती छोड़ता है उसे लगता है, की उससे उपर कोई है जो उससे अधिक सुखी है, फलस्वरुप एक बार फिर वो उत्साह नही आता जिसकी दरकार है।
इससे एक कदम आंगे जाऊँ तो कह सकता हूँ की आज सभी के सभी छात्र इंजिनियर या डॉक्टर बनना चाहते है, एक बात बताइए, यदि सब इंजिनियर बन गए तो उन कार्यो को कौन करेगा जो सामान्य आदमी के लिए डॉक्टर और इंजिनियर की अपेक्षा अधिक आवश्यक है? यदि कोई आध्यापक न बने तो क्या हमारा समाज चल सकेगा? विचार किया जाय तो हिन्दुस्तान का इतिहास या तो विदेशी लिखते आयें है या विदेशो में पढ़े और विदेश से प्रभावित भारतीय, यदि भारतीय अपना इतिहास ख़ुद नही लिंखेगे तो आने वाली पीढी अपने आप पर गर्व कैसे करेंगी? परिणाम यही है की हमें भारतीय की बजाय फिरंग ही श्रेष्ठ नजर आते है। इसी का छोटा सा रूप है इस वर्ष की IPL प्रतियोगिता में भारतीय प्रशिक्षु कम और फिरंगी ज्यादा नजर आतें है। कैसे जागेगा भारतीय होने का अभिमान?
में एक वैज्ञानिक हूँ, भारत के बाहर अपना अनुसंधान पुरा कर भारत लौटने को बैचैन हूँ, परन्तु इस बात का हमेशा दुःख होता है की आज नए भारतीय छात्र आधारभूत विज्ञान छोड़ कर कटिंग एज के नाम पर उन क्षेत्रों का चुनाव कर रहे है, जहा विदेशी फंड अधिक मिल सके! अरे भाई पैसे का मोह इतना है तो फिर विज्ञान क्यों? आप इंजिनीयार और मैनेजर के रूप में जितना कमा सकते है उंतना तो विज्ञान में संभव हि नही है, और इन क्षेत्रों के लिए उतनी मेहनत भी नही है जितनी विज्ञान के लिए जरूरी है। जरा सोचिये अगर हम सभी वैज्ञानिक उभरते हुए क्षेत्रों में जाए और आधारभूत को तिलांजलि देदे तो क्या कभी हम हिन्दुस्तानी अपनी एक सफल टीम बना सकते है? एक अच्छी टीम के लिए तो आधारभूत कि आवश्यकता उभरते हुए क्षेत्र से ज्यादा हि होंगी।
अंत में इसी को संक्षिप्त रूप में कहू तो स्वर्गोपम भारत की धरती सब को सुखी तभी बना सकती है जब हम सारे काम लगन से करे और वर्तमान में जीते हुए वर्त्तमान का आनंद ले।
आओ कभी पतीली पे
6 years ago
सच कहा, कल किसने देखा।
ReplyDelete( Treasurer-S. T. )