पर्यावरणविज्ञानिक पर्यावरण के कितने मित्र है, यह "अर्थ आवर" यानि "पृथ्वी घंटा" से साबित हो जाती है। दुनियो को अंधेरे में रखने से जितना भला हुआ पर्यावरण का उससे भी ज्यादा भला सिर्फ़ एक विमान की उड़ान रद्द होने से हो जाता है, जो बिजली एक बार बन गई क्या उसे फिर से कोयले में बदला जा सकता है? यदि नही तो अपने घर की बत्ती एक घंटे बंद कर आपने वातावरण का कोई हित नही किया! यदि आप हित करना ही चाहती/चाहते है तो प्रतिदिन बिजली की बचत कीजिये तभी विद्युत उत्पादन सयंत्र कम कोयला या पेट्रोल उपयोग करेंगे, वरना जो एक बार बिजली पैदा हो गई उसे संग्रह करना लगभग असंभव हैं।
शायद पर्यावरण वैज्ञानिक ये सोचते है की बिजली न उपयोग कर अगर मोमबत्तियों का प्रयोग किया जाय तो हम पृथ्वी को बचा लेंगे! अरे भैय्या मोमबत्ती से कोई धुआ नही निकलता क्या? वास्तव में अगर पर्यावरण पर कोई खतरा न हो तो ये सब अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। पृथ्वी घंटा मनाने के लिए अगर आप घर की बत्तियां बंद कर कार से बाहर केंडल लाइट डिनर पर जायेंगे तो हो चुका भला।
अभी मैंने पढा की गाय भैसों को मछली का तेल दिया जाए तो उनका पादना कम हो जायेगा इससे वातावरण का भला हो जायेगा। अरे वाहरे पर्यावरणविज्ञानं, शाकाहारियों को मांसाहारी बना देने से वातावरण सुधर जायेगा ये कह कर तो आपने अपनेआप ही सिध्ध कर दिया की आपकी बात सुनने वाले महामूर्ख है।
वास्तव में पश्चिमी विद्वान अनन्त काल से इसी भ्रम में है की दुनिया का सारा पोषण मांस में ही पाया जाता है। वे ये तो कहते है की इंसान की उत्पत्ति शाकाहारी वानरों से हुई है, परन्तु इसके साथ ये भी थोपने का प्रयत्न करते है की मनुष्य की बुध्धि का विकास तभी सम्भव हो सका जब उसने मांस भक्षण प्रारम्भ किया, क्योंकि इससे उसे ऐसे पोषक तत्त्व मिले जो शाक भाजियों से नही मिल सकते थे। में इन लोगो से ये पूछना चाहूँगा की आज भी शाक भाजी खाने वाले मांसाहारियों से अधिक सवस्थ रहते है, तो उस युग में जब उसने मांस खाना प्रारंभ किया अपने स्वास्थ्य की रक्षा कैसे कर पाया? और यदि वह अपने स्वाथ्य की रक्षा नही कर पाया तो विकासवाद के अनुसार वोह अपनी संतति को कैसे बचा पाया? मनुष्य का पाचन तंत्र शाकहरीयो के पाचन तंत्र से ही मेल खाता है, अतः मांसभक्षी मानव बिना चिकित्सा के अपनी स्वास्थ्य रक्षा नही कर सकता।
आप शाकाहारी जीवो को मांसभक्षी बना कर सात जन्मो में भी वातावरण का भला नही कर पायेंगे, अगर ऐसा किया गया तो इसके दूरगामी परिणामो को हमारी कई पुश्ते भोगेंगी । वातावरण का हित , उसके हिसाब से चल कर ही किया जा सकता है उसे अपने हिसाब से मोड़ का नही। पर्यावरण का असली शत्रु उपभोक्तावाद है, अपने हित के आगे, अपनी जिद के आगे , औरो को कुचल देने की मनोवृति है।
आओ कभी पतीली पे
6 years ago
that's great! you sure have got a talent for writing such intense posts! but, tell me, where are the visitors?
ReplyDeleteDear Nishantji;
ReplyDeleteI do not write to call anybody to come and view, i write because i feel peace of mind after writing!
nilam
सही कहा ! ऐसे ही कहते रहो भैया!
ReplyDeleteगोबर से कहिए कि मेरे नाम में घुसपैठ न करे। बाकी सब ठीक है।
ReplyDelete-संजय ग्रोवर
bahut bahdiyaa, kaafee prabhaavit kiya aapkee lekhanee aur aapke andaaj ne.likhte rahein.
ReplyDeletecoming to your blog is like sitting in hyde-park,where you can say what u like keep it up
ReplyDeleteyou may visit my blog only one post and i abandoned it ,but i will agai start posting
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बहुत बढिया....स्वागत है..
ReplyDeleteबहुत सुंदर आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है ..........
ReplyDeleteबहुत अचा है ये
ReplyDeleteसही पोस्ट............मजा आ गया पढ़ कर. ठीक कहा की पश्चिम सभ्यता वाले सिर्फ मांस खाने को भी सभी समस्याओं का हल मानते हैं. शाकाहारी सबसे उत्तम आहार है समय आने पर समझ जायेंगे.
ReplyDeleteमॉस खाने से वातावरण शुद्ध होगा......ऐसा सोचना बीमार मानसिकता से अधिक कुछ नहीं
Hye,
ReplyDeleteCheck this cool link
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बिल्कुल सही लिखा आपने......आभार
ReplyDeleteआपके सब के प्रतिसाद के लिए धन्यवाद, परन्तु में अपने शर्मीले nature और हिन्दी टाइपिंग पर कमजोर पकड़ की वजह से, आप सब को व्यक्तिगत रूप से शुक्रिया नही कह सह्कुंगा, इसलिए क्षमायाचना करता हूँ. यह जान कर अच्छा लगा की पर्यावरण पर मेरे विचारों से सहमत होने वाले कई लोग है. यदि कुछ नया पढ़ना चाहे तो मेरे नए ब्लॉग पर आपका सवागत हैं. हालाकि मुझे गंभीर चिंतन और हास्य , समसामयिक विषयो से अधिक पसंद हैं मैं इस ब्लॉग को भी अपडेट करता रहूँगा, हास्य और गंभीर चिंतन से संभंधित चिठ्ठो के लिए आप मेरा ब्लॉग तत्त्व-बोध (http://tatva-bodh.blogspot.com/) देख सकते है.
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