Friday, April 10, 2009

गोबर नम्बर पाँच

बार बार प्रश्न उठाया जाता है की लड़कियां स्कूलों में तो लड़को से आगे रहती है फिर प्रतियोगी परीक्षाओ में उन्हें क्या हो जाता है, कुछ लोग कहते है की इसके पीछे कोचिंग का हाथ है। लोग अपनी बेटियों को कोचिंग के लिए नही भेजते है इसलिये उनका चयन नही हो पाता , अजी क्या कहने आपके! क्या आपने कभी किसी वर्ष के नोबेल पुरस्कार की सूचि खोलकर देखि/पढ़ी है? यदि हाँ तो इसमे कितने पुरूष और कितनी महिलाए थी? विज्ञान जैसे क्षेत्र में तो कोई भेदभाव नही है, फिर ऐसा क्यो?
जहां तक लड़कियों के चयन का प्रश्न है ये अंतर सिर्फ़ और सिर्फ़ मानसिकता का है, आप कहते है की इंजिनियरिंग मे छात्रा प्रतिशत कम इसलिए होता है क्योंकि लड़किया बायोलॉगी मे सिर अधिक खपाती है, तो मेडिकल के क्षेत्र मे छात्रा प्रतिशत को क्या होता है? वहाँ भी बात छोड़ दीजिए, विदेशो मे छात्रा को छात्र के बराबर माना जाता है, फिर पी एच डी लेवेल तक आते आते छात्रा प्रतिशत क्यों बुरी तरह गिर जाता है? वस्तुतः प्राकृति ने हमारा जो स्वाभाव बनाया है उसके अनुसार एक महिला के लिए अपने स्तर से संतुष्ट होना अधिक आसान है बनिस्बत एक पुरुष के, फलतः वे एक स्तर के बाद संघर्ष करना बंद कर देती है, और उच्च शिक्षा के लिए अपने द्वार स्वयं बंद करती है।
इसे मैं प्राकृतिक संतुलन कहूँगा, प्रकृति स्वयं ये चाहती है की की परिवार बने रहे, यदि पुरूष और महिलाओ के बिच असंतुष्टि को लेकर होड़ छिड़ जाएँ तो इसमे हार सिर्फ़ प्रकृति की ही है, महिलाए आम तौर पर पुरुषों के मुकाबले अधिक लंबे समय जीवीत रहती है इसका कारण भी यही है, अपने मानसिक असंतोष के कारण वह महिलाओं से आगे तो निकल जाता है परन्तु यही असंतोष उसे नाना प्रकार की बीमारियों में भी धकेल देते है, युवा अवस्था में तो उसका शरीर निरंतर संघर्ष में साथ दे देता है परंतु वृध्धावस्था में उसकी असमर्थता कुंठा को जन्म देती है।
निरंतर संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है परन्तु उसी विकास को सहेजने के लिए संतुष्टि की आवश्यकता है।

2 comments:

  1. bahut hee saarthak prastuti aur lekhan kiya hai aapne, yun hee likhtee rahrin.

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  2. सही लिखा आपने
    "निरंतर संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है परन्तु उसी विकास को सहेजने के लिए संतुष्टि की आवश्यकता है। "
    (कृपया शब्द पुष्टिकरण हटा दे तो अच्छा रहेगा .)

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